((मुझे सनातन परंपरा की दो घटनाएं बहुत ही प्रेरणास्पद लगती हैं. दोनों गंगा के इर्द गिर्द हैं. एक गंगापुत्र भीष्म पितामह की वो प्रतिज्ञा जिसमें वे जीवन भर ब्रह्मचारी रहने का संकल्प लेते हैं. दूसरा दर्जनों पीढ़ियां खत्म होने के बाद गंगा को धरती पर लाने का भगीरथ-प्रयत्न. भीष्म प्रतिज्ञा और भगीरथ प्रयत्न का अनुशीलन करने के लिए ही मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई की. जिनकी आस्थाएं इससे सीधे तौर पर जुड़ी होंगी वे इसमें आस्था रखेंगे और जिन्हें विश्वास नहीं होगा वे मिथक मानकर भी प्रेरणा ले सकते हैं. मुझे लिखना बेहद पसंद है. इतना, जितना जीने के लिए प्राणवायु आॅक्सीजन जरूरी होता है.))

संस्मरण के पिछले हिस्से में मैंने आपको बताया कि हम लोगों में संवेदनशील रचनात्मकता के लिए सबसे बेहतर नाम स्मृति सिंह का होना चाहिए. अब आगे सिर्फ रचनात्मक लोगों की बात करेंगे. रहस्य शाकद्विपीय भोजक. भोजक में क्रिएटिविटी की बहुत ज्यादा संभावनाएं हैं. क्योंकि जितना मैंने देखा वे जब किसी काम को लेकर बैठते तो पूरा होने तक उसके संपादन में कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहते. इनको देखकर उनकी मूंछों का खयाल उमड़ घुमड़कर दिमाग में आ ही जाता है. शिवाजी के शौर्य पर एक लोकप्रिय कविता है कि;
मूंछन पे ताव दे, कंगूरन पे पाव दे !
सरजा शिवाजी जुद्ध जीतन चलत हैं.
भोजक जब तक नोएडा रहे. मेरे रूममेट बने रहे. बड़े भाई की तरह हौसला अफजाई का काम करते रहे. भोजक के साथ सबसे ज्यादा घनिष्ठता इसलिए भी बनी रही क्योंकि भाषा संस्कृत को लेकर हम दोनों में समान आदर है. एक बार भोजक के पिताजी से मेरी बात भी हुई, उन्होंने मुझसे कहा कि अभिजीत संस्कृत में तुम्हारी दिलचस्पी को आगे ले जाने की कोशिश करना. इस समय कुछ किताबों को पढ़ने का उन्होंने मुझे सुझाव भी दिया था.

दरअसल, मैं बचपन से ही संस्कृत के प्रति खास दिलचस्पी रखता. पापा ही दसवीं में मुझे संस्कृत पढ़ाते तो उनसे संस्कृत व्याकरण पढ़ने के बाद संस्कृत भाषा से खूब लगाव हो गया. और कहीं ना कहीं हिंदी के लेखों और कविताओं में भी मेरी भाषा का संस्कृतनिष्ठ होने के पीछे यही वजह है.
भोजक ने तो वैसे मेरी बहुत सारी जगहों पर मदद की है. लेकिन वाटर कन्सर्वेशन पर लिखी मेरी एक कविता ‘पानी ने’ को इतने सुंदर ढ़ंग से एडिट किया कि उसका इंपैक्ट और ज्यादा गहरा हो गया. प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को लेकर मेरी कई कविताएं हैं, जिनमें प्रकृति मां है!, जिसे आईटीएमआई में मैंने ना जाने कितनी बार सुनाया है. फैकल्टी का जो भी आया होगा, मैंने सबको यही कविता सुनाया होगा. भोजक उन लोगों में से हैं, जिन्होंने मुझे कविताएं लिखते रहने का सुझाव दिया.

भोजक के साथ कुछ बेहद खास अनुभव रहे हैं मेरे. एक बार ऐसा हुआ कि सुष्मिता मैम ने उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल करके स्क्रिप्ट लिखने का काम दिया. उर्दू के लफ्ज में कहां नुक्ता आएगा. और नुक्ता का प्रयोग ना करने से किस तरह शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं.
फिलहाल, सबको एक स्क्रिप्ट लिखनी थी. जिसमें उर्दू के ज्यादातर प्रयोग किए गए हो. पूरी तरह से सही स्क्रिप्ट लिखने के बावजूद भोजक मुझे बार-बार दिखाकर कहते, पाठक भाई.. ये उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल तक तो ठीक है. मगर नुक्ता वाले शब्दों में बड़ी दिक्कत होती है. क्योंकि हम लोग तो संस्कृत वाले हैं. मैंने कहा- भोजक भैया फिर भी आपने बिल्कुल सही लिखा है. मैं और भोजक समय मिलता तो मंदिर जरूर जाते. एक बार तो नवरात्रि में हमने देवीमयी पढ़ा.. वहां के पंडित जी देखकर हैरान रह गए.

भोजक भाई इतना निश्चिंत रहते कि पूछिए ही मत. सबका असाइनमेंट होने की कगार पर होता तो महोदय शुरू करते और सबसे पहले बनाकर बैठ भी जाते. जब तक कोई असाइनमेंट करते पूरे ध्यान से. भोजक को जब मुझसे कोई बात मनवानी होती तो मेरे लिए उनका संबोधन पाठक से बाबू में बदल जाता. जैसे, अगर मैं वॉशरूम में नहाने में समय लगाता तो भोजक कहते- आजा बाबू, कितना टाइम लगा रहा है. लेट हो जाएंगे सभी इंस्टीट्यूट के लिए. अब बताइए इतने प्यार भरे निवेदन को कोई कैसे ठुकरा सकता था. मानना ही पड़ता. भोजक के लिए तो बस इतना ही कि एक जिंदादिल इंसान, हर परिस्थितियों में आपके साथ मुस्तैदी से खड़ा होने वाला और बेहद दिलदार आदमी.