((जापानी उपन्यासकार हारूकी मुराकामी की एक लाइन है कि अगर आप जवान हैं और प्रतिभावान भी तो ये ऐसा है कि जैसे आपके पास पंख हो. ये लाइने बादशा रे के व्यक्तित्व पर सटीक बैठती हैं!))
बादशा रे मतलब, आइडिएशन! बादशा रे माने लगाव. बादशा रे मतलब, अनुकूलता! बादशा रे माने प्रवाह. बहुत देर मन में एक ही विचार आए जा रहा है कि एक व्यक्ति जिसके साथ चार साल पहले कितनी सघन मधुरता कायम रही. और जब उसको लिखने बैठा हूं तो मन कह रहा है कि क्या लिखूं और क्या नहीं! फिर भी जब स्मृतियों को जीवित का करने का बीड़ा अपने सिर उठाया है तो उसे बीच रास्ते में तो नहीं छोड़ सकता. रक्षाबंधन की छुट्टियाँ थी. पीजी के ज्यादातर लोग राखी बंधवाने अपने-अपने घर गये हुए थे. बादशा भाई ने कहा चलो अभिजीत हजरत निजामुद्दीन के दरगाह चलते हैं. मैं भी रूम पर बैठकर बोर हो रहा था तो दोनों भाई निकल पड़े. हजरत निजामुद्दीन औलिया के दरगाह!

सूफी संतों के बारे में जब से पढ़ा था. उन्हें और जानने की प्रबल इच्छा रहती मन में. आजकल तब्लीगी जमात की वजह से भले ही सूफी संतों को भी दुष्प्रचार झेलना पड़ रहा हो, निजामुद्दीन औलिया के नाम पर काला धब्बा लगा लेकिन निजामुद्दीन औलिया ने इस्लाम में सुधारों के लिए ताउम्र काम किया है. निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर बादशा रे के साथ पहुंचा तो वहां पर पाया कि एक सूफी संत यानी हजरत निजामुद्दीन को कुछ मौलवी पूरी तरह से इस्लामिक बनाने में जुटे हैं!
अपने जीवन काल में हजरत निजामुद्दीन ने इस्लाम की क्रूरता का पुरजोर विरोध किया था. जब ये सवाल मैंने वहां एक मौलवी से पूछा तो जवाब मिला कि नहीं वे तो इस्लाम में आस्था रखते थे. बादशा भाई ने मुझे रोका और कहा कि इनके मुंह मत लगो. वापस आते समय बादशा रे ने बताया कि अभिजीत इस दरगाह को एक विदेशी ट्रस्ट आगां खां चलाती है. वहां हम लोगों ने कव्वाली भी सुनी. निजामुद्दीन विजिट का हमारा अनुभव बेहद शानदार रहा. कव्वाली के बोल थे – “हमें मौला ने बुलाया ये रहम नहीं तो क्या है? “

बादशा रे और मैं एक बार ITMI जा रहे थे. तो रास्ते भर हम गालिब से जुड़े एक किस्से पर चर्चा करते हुए इंस्टीट्यूट पहुंचे. किस्सा ये था कि एक बार मिर्जा ग़ालिब आम खा रहे थे. और पास रखी गुठलियों को सूंघकर एक गधा वहां से गुजरा ही था. तभी एक सुधीजन आएं और चचा ग़ालिब से कहने लगे. देख रहे हैं साहेबान गधा भी आम नहीं खाता. मिर्जा गालिब ने उन्हें रोका और आम खाते रहे, बोले बरखुरदार आम तो आदमी खाते हैं, गधे आम नहीं खाते.
रूम पर खाली समय में प्रेमचंद की कहानियों को रिकाॅर्ड करके मुझे अपना वाइस ओवर सुधारने की सलाह बादशा रे ने ही दी. उनके व्यक्तित्व के बारे में क्या बताऊं ? समझ नहीं आता. शुरूआती दौर में तो उनका व्यवहार बहुत अटपटा लगता. वे किसी की गलतियों का खुले तौर पर मजाक उड़ाते तो लगता कि बादशा भाई ऐसा क्यों करते हैं. उन्हें तो चाहिए कि अगर किसी में थोड़ी बहुत सुधार की गुंजाइश है तो उसे आराम से समझा दें.

जैसे किसी का शब्दों के उच्चारण को लेकर गलती होने पर उसे सरेआम बोलना. किसी की छोटी सी गलती पर अनाप शनाप सुना देना. इस पर पार्क में टहलते समय बादशा भाई से मैंने पूछा. ऐसा क्यों करते हैं आप? उन्होंने कहा ” अभिजीत हम सभी दोस्त. एक दूसरे की छोटी मोटी गलतियां समय रहते सुधार लिए तो तेज आवाज़ में अभी मेरे से सुनना जिसे नहीं गंवारा है वो आगे जाकर तो परेशान हो जाएगा. जब उन पर जिम्मेदारियों का भारी बोझा भी होगा और एकुरेसी भी देनी होगी. “
वाकई में दोस्त की सही परिभाषा यही है. कि वो जहां पर आपकी तारीफ करनी हो तारीफ करे और जहां पर बुराई की संभावनाएं बन रही हैं, वो अपने व्यक्तित्व को खरोंचता हुआ आपकी आलोचना जरूर करे.

बाकी बादशा भाई, बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. बैच के सभी लोगों से हमेशा अपनी अच्छी पैठ बनाकर रखते. किसी से भी अपनी बात मनवा लेने का गुण उनके भीतर है. आखिर में बस इतना ही कि जहां भी रहिए मोहब्बत से और अपना मित्रवत व्यवहार हमसे बनाए रखिए. ITMI संस्मरण के अलावा भी बहुतेरी बातें हमेशा मनों में आकार पाती रहती हैं, जिनको याद करते रहना हमारे भीतर पाॅजिटिव ऊर्जा का संचार करते रहने जैसा है!