अगर ITMI संस्मरण को लेकर आपके मन में ये सवाल आ रहा हो कि मुझे इतनी फुरसत कैसे मिलती है और मैं अपने वर्तमान से बेहतर अतीत को जी पाया हूं तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. मैंने हमेशा खुद को समभाव रखने की कोशिश की है. इस नाते अतीत या वर्तमान का प्रभाव मेरे ऊपर काबिज नहीं है. क्योंकि हर वर्तमान एक ना एक दिन अतीत हो जाना है तो जिनके लिए अतीत का मोल नहीं होगा वो वर्तमान की बागडोर कैसे संभाल पाएंगे. और भविष्य के भावी क्षण में अनुभवों से सबक कैसे लेंगे.

ITMI संस्मरण लिखने की शुरूआत मैंने आज से नहीं की है. मैंने उस दौर को भोगते हुए डायरियां लिखी हैं. कुछ उनसे मदद लेता हूं और कुछेक बातें मन में लोट पोट करती हैं. डायरी लिखने की शुरुआत ऐसे हुई कि बड़ी भामां जब गांव रहती थी तो डायरी लिखती. और मुझे उसने बड़ी ईर्ष्या होती कि विश्वजीत भैया पर प्रेम का एकाधिकार इनका ही है क्या, जो उनपर सारा हक जताती फिरती हैं. तब उम्र कम थी. और अनुभव भी बेहद छोटा. इस नाते लगता कि ये हमारे भाई के प्रति स्नेह को जज कर रही हैं. अब लगता है कि प्रेम बहुत विस्तृत होता है. वो दावा तो करता है लेकिन स्नेह की दोगुनी तुरपाई के साथ. हम भामां के उस प्रेम से ताउम्र अभिसिंचित रह सकेंगे जो भैया भी हमें शायद नहीं दे सकते.

खैर, एक और बात जो संस्मरण को लिखने के लिए मन बांधती है. ये कि कल्पनालोक में जाने से बेहतर है जमीन पर रहकर भोगे हुए लम्हों को कहा जाए. क्या फर्क पड़ता है अगर कोई सोचे कि एक आदत सी बना ली है मैंने अतीत और मन के गिरोह खोलने की. तेज भागती जिंदगी में रूककर आपने कभी पीछे मुड़कर देखा है. क्या देखा है? अवघटनाएं या नैराश्य. मैंने सुकून देखा है और रोमांच महसूस किया है. सफलमस्तु!