चंद पैसों और फायदे के फ़ेहरिस्त में लोग अपने मूल्यों से आए दिन समझौता कर रहे हैं. ये व्यक्तिवाद का सर्वोत्कृष्ट पतन है. आज के दौर में संबंधों पर आरुढ़ होने के बजाय लोग पद और मामूली महत्वाकांक्षाओं के सामने नतमस्तक हो रहे हैं. तर्कों के अन्वेषी लोग ‘लेट अस अस्यूम’ की संभावनाओं में गोते लगा रहे हैं. हिंदुस्तान के सबसे बड़े संस्थान भी स्वायत्तता के सिरमौर नहीं बने रह पा रहे.
जब तक कोई अधिकारी या कर्मचारी अपने काम के प्रति निष्ठावान रहने के लिए प्रतिबद्ध रहेगा तब तक किसी भी तरह का सिद्धांत खारिज नहीं हो सकता. ड्रग माफिया बाॅलीवुड में रिया या सुशांत केस से बहुत पहले से मुंबई में मुस्तैद हैं. लेकिन उन पर ना तो कोई नकेल कसने वाला है और ना ही अपने दायित्वों के लिए ईमानदारी बरतने की कोशिश करेगा. क्या ये एनसीबी का काम नहीं है? और ये संस्थान किसी पार्टिक्युलर केस में ही क्यों इतने सक्रिय हो गये? इनकी अनिवार्यताओं में ड्रग के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए.
जो गुप्तेश्वर पांडे चिल्ला चिल्लाकर टीवी चैनलों पर एक हाईप्रोफाइल केस के लिए समर्पण दिखा रहे हैं. क्या उनकी ड्यूटी बिहार में इस साल हुई सैकड़ों युवाओं की आत्महत्याओं के समय नहीं रही होगी? लेकिन उन पर ना तो ठीक से जांच ही की जाती है और ना ही न्याय के लिए टीवी चैनलों पर गला ही फाड़ने जाता कोई! दरअसल, हल्की चीजों पर बहस क्यों रखेगा कोई?
किसी लोकतंत्र में ये जरूरी बात होती है कि कोई भी संस्थान अपने काम में भिन्नताएं या दोहरा रवैया ना रखे.