कमरे के घुप्प अंधेरे से मानो संधि कर लेना चाहता है मन कि अब उजाले के तिलिस्म में मत ले जाना. उन उजालों से भरोसा उठ चुका है. इस घने काले अंधेरे में मन की व्यथाएं कुछ हद तक शांत हो जाया करती हैं. फिर मन का एक तंतु घर पहुंच जाता है. अम्मा के पास. सोचता हूं कि काश कि वो मेरे पास होतीं. मां के साथ होना, कितना सुखद होता है. वो लगातार मुझे इन उलझनों से निकल जाने को कहती हैं. क्यों घर की चिंता करते हो? पापा करेंगे ना सब! वग़ैरह. दो पल को तो मेरा भी जी चाहता है कि अम्मा की बात मान लूं. फिर जब समाजशास्त्र के बारे में सोचता हूं तो मन ये फैसला नहीं ले पाता. मैं अपने जीते जी किसी पड़ोसी को ये कहते नहीं देख सकता कि बेटे तो अपनी ही दुनिया में मदमस्त हो गये. घर की तो उन्हें चिंता ही नहीं रही. जब घर पर था. तो ये सुन सुनकर उकता गया था मैं. पापा भले सभी परिस्थितियों से वाकिफ रहते और सब जानते. लेकिन इन उलूल जुलूल बातों में अक्सर चिंतित रहा करते. ये सब मेरी आँखों के सामने घटित हुआ है और मेरे मन में गहरे जाकर बैठा हुआ है. इसलिए मैंने अपनी प्राथमिकता में घर-बार को शामिल कर लिया और खुद को बाहर.
ये मेरे लिए बेहद चुनौतीपूर्ण है. लेकिन मेरे बिचले बाबा से मैंने एक चीज़ सीखा है कि जब बात उसूलों की आए तो जान पर भी बन आए तो भी पीछे मत हटो. ये जिंदगी बहुत बड़ी है. इसमें सुख दुःख क्षणिक हैं. देर तक रहेंगे तो घर के लोगों के वो अरदास जो उनके मुझसे जुड़े हैं और मेरे उनसे. मैं बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे की तरह अपने पुरखों को अनपढ़ तो नहीं कह सकता. मेरे पुरखे मुझे जो भी सिखाए वो मेरे लिए जीवन प्रतिपादन की वस्तुएं हैं और रहेंगी. इन साहेब को ये तक नहीं पता कि अनपढ़ कबीर की लाइनों पर पीएचडी की जाती है लेकिन इनको तो ये साबित करना है कि इनके खानदान में सर्वप्रथम शिक्षाशास्त्री यही बनें. हमने रिश्तों को बांधने में हमेशा यही चूक की है. कि उसकी हैसियत देखने बैठ गये. उसकी आभा देखने बैठ गये. उसका महत्व देखने बैठ गये. किसी से हाथ मिलाते समय ये कभी ना सोचें कि वो आपके लिए कैसा है! हमेशा रिश्ते बनाते समय मन में संकल्प करें कि आप उसकी बेहतरी के लिए मुस्तैद रहेंगे.