किसानों का कोई आंदोलन नहीं होता. किसानों का कोई झंडा नहीं होता. जो आंदोलन कर रहे हैं ना. ये सब सक्षम किसान हैं. किसानों की बदहाली देखनी हो ना. तो किसी गाँव में जाकर देखिए. बेचारे पूरा जीवन खेती में खपा देने के बाद भी सम्मान के साथ जी नहीं पाते. वो आंदोलन करने सड़कों पर आएंगे तो उनका परिवार उस दिन भूखा रह जाएगा. उनकी गायें और भैंसें भूखी रह जाएंगी.
किसान उन लोगों को कहते हैं, जिनकी आजीविका का साधन सिर्फ कृषि हो. बहुतेरे किसान तो ऐसे हैं देश में जो मंडी जाते ही नहीं. अनाज के क्रय विक्रय से उनका कोई लेना देना नहीं. वो न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग भला क्यों करेंगे. वो अपने खेत से बस उतना ही अनाज उगाते हैं, जिससे उनका पेट पल जाए. क्योंकि पूरे खेत पर लागत की व्यवस्था उनके चादर से बाहर पैर पसारने जैसी है. महंगे बीज, उर्वरक, सिंचाई के लिए बिजली या डीजल भी बेतहाशा महंगे, जुताई भी महंगी. ये सब करने के बाद बाढ़ आ गया या फिर सूखा पड़ गया तो लागत भी गई और फसल भी. ये सड़कों पर हंगामा करने वाले बड़के किसान हैं. कम जमीन वाले किसान तो बाज़ार भी तभी जा पाते हैं जब कोई त्योहार हो.
बस ये समझ लीजिए कि किसान के हर कदम पर कांटे हैं. अब इतना बदहाल कर दिया आपने फिर भी किसानों के हमदम बनते फिर रहे हो. किसान फांसी के फंदे पर एवैं नहीं झूल जाता होगा. पिछले तीन दशकों में भारत में पांच लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर लिया. किसान इतने धैर्यशाली होते हैं कि वो जल्दी बेसब्र नहीं हो सकते हैं. बल्कि तमाम संघर्षों का दामन पकड़ जिंदगी बिताते हैं. उनकी आत्महत्या सरकारों के पुरुषार्थ नहीं नपुंसकता का जीता जागता प्रमाण हैं.