वैसे तो भारत की सभी लोग संस्कृतियां खास हैं लेकिन पूरबिया, लोक संस्कृति में पला बढ़ा. इस नाते इसे ज्यादा करीब से जानने समझने का मौका मिला. यहां बादल नहीं बरसते, भगवान बरसते हैं. सूखे की स्थिति में आप आसानी से किसी मुंह ये जरूर सुन पाएंगे कि ‘अब त बरस दा भगवान’. बच्चे भगवान को बरसने के लिए इतना विनम्र निवेदन करते हैं कि बारिश इतनी ज्यादा हो जाती कि फिर बाढ़ आना लाजमी है. ‘दऊ-दऊ बरखा, गगरी में अड़सा’, माने दऊ यानी भगवान बरसिए और हमारे गागर को भर दीजिए. जब कई दिन तक बारिश नहीं रुकती तो भी पुरबिया बच्चे फिर से ईश्वर से करबद्ध निवेदन करते हैं कि ‘दऊ दऊ घाम करा, सुगवा सलाम करा. ये पुरबिया आध्यात्म है, जिसे घर की या गांव की कोई बूढ़ी दादी सारे बच्चों को रटा दिया करतीं हैं.
हम पूरब के लोगों की आस्थाएं भी बड़ी सीमित हैं. गांव-पुर में एक ऐसे देवी जी के भक्त जरूर मिल जाएंगे. जो देवीजी के भक्त कम और देवीजी इनकी गुलाम जरूर लगने लगती हैं. इन्हें लोग ओझा-सोखा कहते हैं. इनको सुनकर लगता है कि ये हुक्म करते हैं, देवीजी को वही मानना पड़ता है. कालीजी के चंवरा पर कोई ना कोई सोखा जरूर मिल जाएगा आपको. अब मान लीजिए किसी की तबियत खराब हो गई, तो उनकी मां को पहले शंका होगा कि कहीं कोई चुड़ैल भूत का साया तो नहीं. ये अंधविश्वास अब कम हुआ है, पहले बहुत ज्यादा था. तो ऐसे में वो मां सोखा बाबा को दिखाने पहुंचती. सोखा बाबा देवी मां को मना रहे हैं – “मान जो देवी, काहे ना मानत हई रे. कहां पकड़ली एके. वग़ैरह. ऐसी अनगढ़ आस्था पर भी इन्हें फक्र होता है क्योंकि इसमें कोई छल नहीं है.
जमींदारों ने चालाकी की या निषाद लोगों को ही इससे फायदा है पता नहीं? निषादों को रहने के लिए नदियों से सटे जमीन के हिस्से दे दिये कि बाढ़ आए तो पहले इनका ही घर डूबे. एक नज़रिया ये भी है कि बाढ़ में नांव चलाने से कईयों की आजीविका जुड़ी हुई है. और तराई के खेतों में सब्जियां और कुछ फसलें अच्छी होती हैं. वे जाल लगाकर मछलियों को पकड़ भी सकते हैं, जिससे कुछ आमदनी हो सके. इन सबको निषाद सिर्फ़ पैसे के लिए नहीं करता, ये जमींदारों के लोक आध्यात्म का जीता जागता प्रमाण है. क्योंकि कई उदार जमींदारों ने जमींदारी उन्मूलन से पहले ही कितनी निषादबस्तियां और हरिजनबस्तियां बसाईं. इसकी तसदीक़ हर पूरबिया जिला देता है, इसे दलित विमर्श की सड़ाँध में मत गिरने दीजिएगा…