पूरब यानी पूर्वांचल की बेटी सिर्फ़ अपने पिता की बेटी नहीं होती, वो पूरे गांव की, हर घर की बेटी होती है. हां, बेटे जरूर सबके अपने होते हैं. यहां किसी की बेटी की शादी में जब मंडप यानी मांडव बनता है तो हर घर का एक आदमी अपनी क्षमता के हिसाब से योगदान देता है. बांस बंटोरने के लिए लोग भले उसके मालिक से पूछे लेकिन बेटी की शादी के नाम पर सब इसे अपना सौभाग्य ही मानते हैं. कोई बांस बटोर रहा होता है, कोई मंडप की आकृति के हिसाब से गड्ढे बना रहा होता है. बढ़ई लोग मंडप का शीर्ष बनाने के लिए बांस से लड़की के हाथ के नाप से नौ गुना या सात गुना लंबा फलठा बनाते हैं. जब तक बिटिया की शादी हो नहीं जाती, हर प्रयोजन पर गांव के हर घर के लोग शामिल होते रहते हैं. गांव-जवार में लड़की के जन्म को कोई अभिशाप नहीं मानता, लोग शान से कहते हैं कि “लक्ष्मी आईल बाटी” और उनके ऐसा कहने के दौरान आप अपार हर्ष महसूस करेंगे.
मुझे लगता है कि हर समाज में कुछ ना कुछ विकार या कमियां होती होंगी. इन्हें अवधारणा नहीं बना लेना चाहिए. बहुत सारी जगहों पर लड़की के जन्म पर सोहर नहीं होता. लड़के के जन्म पर ही होता है. ये लोगों की संकुचित सोच है. इसे दूर करने की जरूरत है.
पूरबिया लोगों में दहेज का चलन अभी ख़त्म नहीं हुआ है. बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग इसे बढ़ावा दे रहे हैं. ये शिक्षा-अशिक्षा की बात नहीं है. लोग खुलकर दहेज की मांग करने से नहीं डरते हैं, ये बहुत बड़ी सामाजिक बुराई है. इसका बहिष्कार किया जाना चाहिए. और अगर युवा वर्ग ठान ले कि इस कलंक को अपने माथे से हटाना है तो ये इतना मुश्किल नहीं है.
जो समर्थ हैं और जिनके पास आय के समुचित साधन हैं, उनके लिए दहेज बड़ी बात नहीं, लेकिन इस चलन को बढ़ावा देकर वे उनकी आफत बढ़ा रहे हैं, जिनकी बेटियों की शादी में पुरखों की जमीनें बिक जाया करती हैं. कर्ज चढ़ जाते हैं. अमूल्य संपदाएं गिरवी रखनी पड़ती हैं.
पुरबिया समाज बहुत सुंदर है. ये और सुंदर हो जाएगा. जब हम और आप मिलकर अपने समाज से इस दहेज लोलुप व्यक्तियों को इस लत से बाहर निकाल सकेंगे. कौन बाप अपनी बेटी की खुशी नहीं चाहता, क्या जरूरी है कि वो इसका प्रमाण खुद को मुसीबत में डालकर दे. इसलिए एक आदर्श समाज के तौर पर हमें दहेज के दावानल से पीढ़ियों को खाक होने से बचाने की जरूरत है.
अखबारों में खबरें पटी पड़ी मिलती हैं कि घरेलू हिंसा की बड़ी वजह कहीं ना कहीं ये दहेज भी है. तो दहेज का बहिष्कार कर हम अपने समाज को दैनिक हिंसा से भी उबार सकते हैं.
आधी दुनिया ने हमें ममता, स्नेह, प्यार और ताउम्र साथ देकर हर मुश्किल को आसान किया है. तो हमारा फर्ज भी बनता है कि हम इनके सामने आने वाले सभी अवरोधों को दूर करने में थोड़ी मदद करें. अभी बहुत आंशिक रूप में ही पूरब के जिलों में लड़कियों को उड़ान भरने की आजादियां मिल पाई हैं. जैसे यहां लड़कों की पढ़ाई पर लाखों रुपये खर्च करने की रवायत है लेकिन लड़कियों की पढ़ाई को फिजूलखर्ची माना जाता है.
इसके अपवाद भी हैं, लोग अपनी बेटियों को भी खूब जमकर पढ़ा रहे हैं लेकिन अगर गांव जंवार में इसकी संख्या की बात की जाये तो वो उंगलियों पर गिने जा सकते हैं. लड़कियों को एम ए, बी एड करवा देंगे! लेकिन इंजीनियरिंग, मेडिकल की तैयारी में बहुत कम लोग बाहर भेजते हैं. ये चलन भी ख़त्म होना चाहिए.