वैसे तो देश के पूरब में बंगाल है, लेकिन पुरबिया वे हैं; जो पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में रहते हैं. कुछ हद तक मूल भोजपुरी से जिनका सरोकार है, वे सभी. यही हमारी सैद्धांतिक पहचान है. महाराष्ट्र में लोग हमको भईया कहते हैं. भारत में 16 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं या जानते हैं. यानी देश में हर आठवां आदमी पुरबिया है. खैर, शिव के धनुष पर बसा नगर काशी, पहली बार यज्ञ होत्रा प्रयागराज, नाथ संप्रदाय के प्रणेता बाबा मत्सयेंद्र और गोरख की धरती गोरखपुर, ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के अवतारी मुनि और सती अनुसूइया के बेटे चंद्रमा, दुर्वासा और दत्तात्रेय की धरती आजमगढ़; और अनेकादि विभूषितांगों की जन्मभूमि है ये पुरबिया प्रांत.
भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू, कविवर निराला, अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा के मीमांसक और 169 यात्रा वृत्तांत की किताबें लिखने के साथ चौदह से अधिक भाषाओं के मूर्धन्य विद्वान महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरबिया हैं. दुनियाभर में मुशायरों को प्रसारित करने वाले रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी भी पुरबिया हैं. एशिया के प्रकाशपुंज गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर में है. निर्गुण शाखा के सबसे बड़े कवि कबीर भी पुरबिया हैं. आजादी के लिए अपनी किताब सोजे वतन से जंग झेड़ने वाले प्रेमचंद भी पुरबिया हैं. प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायकों में से एक मंगल पांडे पुरबिया हैं. पुरबियों ने हर विषय और क्षेत्र में महारत हासिल की है. आध्यात्म से लेकर विज्ञान और राजनीति से लेकर साहित्य तक. कोई सिरा हमसे अछूता नहीं रहा.
फिर भी कोरोना काल में महाजनों और व्यापारियों ने सबसे पहले पुरबियों को ही खदेड़ा. वे खदेड़ सकते हैं, क्योंकि हम इसी लायक हैं. हमने आजाद भारत में अपने स्वाभिमान को आजीविका नाम के दावानल में झोंक दिया. या यूं कहिए कि झोंकना पड़ा. हमारे शहरों में केवल शासकीय दफ़तर हैं, औद्योगिक केंद्रों का कोई अता पता नहीं. अब भूख के आगे तो बड़े से बड़ा झुक जाता है, फिर हमारी क्या बिसात की इसका सामना कर सकें. ये पुरबियों का दुर्भाग्य ही है कि भारत के संसदों में इनका जो प्रतिनिधि चुन कर जाता है, वो पिछले सत्तर सालों में छोटे शहरों को भारतीय अर्थव्यवस्था से जोड़ने की बात नहीं उठा पाया. सोचिए, हमारे गुलामी के दिनों और आजादी के दिनों में कितने बदलाव आए? अंग्रेजों के दौर में पुरबिया किसान नील की खेती करने में जी जान लगा देते थे और अब बिचौलियों और जमाखोरों को लाभ पहुंचाने के लिए दिन रात मेहनत करते हैं. अब बिज़नेस में कम जोखिम है और खेती में ज्यादा. पुरबियों में इस बात का असंतोष हमेशा रहा कि उन्हें हमेशा कुशल और प्रवीण होने के बाद भी कमतर समझा गया. हालांकि प्रतिभाएं कभी दबाने से रुक नहीं पाई, लेकिन कोशिशें भरपूर की गई. डीजल का दाम अनायास बढ़ाने वाली सरकारें किस मुंह से किसानों की हितैषी बनती हैं, समझ से परे है.