भारतीय राजनीति का अवसरवाद नंगा नाच कर रहा है. मतलब एक महामारी में आपका जीवन किसी सरकार के जीत पर निर्भर करता है. फिर तथाकथित लोकतंत्र और गुंडाराज में अंतर क्या बचता है. जिस तरह एक गुंडा आपको धमकी देकर कहता है कि अगर जान प्यारी हो तो हमारा कहा मान लो. ठीक उसी नक्शे कदम पर सरकार कह रही है वोट दे दो, नहीं तो बेमौत मारे जाओगे, बिना वैक्सीन मारे जाओगे.
भारत में इतनी सारी नीतियाँ और संस्थान हैं, कोई इस बात की निगरानी क्यों नहीं करता कि राजनेता जनता से जो दावे करता है, क्या उसे पूरा कर पाता है और अगर वो अपने वादों को पूरा नहीं कर पाता तो क्या भारतीय दंड संहिता में ऐसा कोई प्रावधान बना है जिससे जनता उस नेता या पार्टी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर सके. जवाब है नहीं!
भारत में नेताओं को खुली छूट है. जनता से धोखेबाजी करने की. इससे ना तो किसी संविधान के नैतिक मूल्यों पर आप सवाल उठा सकते और ना ही विरोध. नहीं तो अवमानना का केस आप पर ही लगा दिया जाएगा. हेल्थ सिस्टम पर सवाल उठाने वाले देशद्रोही, शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाना राजद्रोह, बेरोजगारी पर सवाल करने पर लाठीचार्ज, गरीबी पर बात करने में इन्हें दिक्कत है!
जिस देश में सच का तुल्यांकी भार निकालकर बोलने की लाचारी हो, वहां काहे का लोकतंत्र और कैसी आजादी. कोरोना काल में जिन मजदूरों को आपने मरने के लिए छोड़ दिया, उनसे कह रहे हो कि वोट दो. किस मुंह से भाई? नीतीश कुमार कह रहे हैं, बिहार में इंडस्ट्री नहीं लग सकती / समंदर नहीं है. क्या सारे कल कारखानों से बना सामान विदेशों में ही भेजा जाता है?
कुछ भी उलूल जुलूल बोल सकते हैं क्योंकि आपने बिहार की जनता को बुनियादी जरूरतों से महरूम रखा. आज की हकीकत तो यही है ना कि बिहार में सौ में से चालीस निरक्षर हैं. शराबबंदी रोक तो दिया लेकिन पड़ोसी राज्यों से तस्करी रोकने का कोई इंतजाम नहीं. बिहार की राजनीति में इतना गड्डमड्ड है कि इसे समझने के लिए या तो संत बनना पड़ेगा या फिर वहां का वोटर.
शुभरात्रि!