वेद, विज्ञान का पक्षधर है. चूंकि वेद किसी एक ऋषि ने नहीं लिखा, इसके समय-समय पर अनेक संकलनकर्ता हुए. वेद में सिर्फ देवताओं की स्तुतियां नहीं हैं. राजनीति के विषय हैं, भूगोल है, चिकित्सा शास्त्र है. परामर्श के विषय हैं. लेकिन विज्ञान इसका मुख्य उपांग है. वेद में कुछ भी जोड़ने से पहले उस सूक्त पर विचार विमर्श होते थे. समितियां बैठती थी. मुझे पूरा भरोसा है कि जब मानव ने सूर्य से उष्णता या ऊर्जा पाई होगी तो उसे शुक्रिया अदा करने के लिए उसे देव बना दिया, हाथ पैर तो कल्पनाएं थीं! जब सीरियल और फिल्म बनाये गये तो उन्होंने इस कल्पना को सहज नहीं रहने दिया और सूरज का मुख बना दिया, उसके घोड़े बना दिये. सूरज के घोड़े होने की साहित्यिक अभिव्यंजना ये हुई कि सूर्य हमारे ऋषियों को निरंतर गतिशील दिखा. अब जब हमारे वैज्ञानिकों ने ये ढूँढ लिया कि दरअसल, सूरज नहीं धरती और सौर मंडल के ग्रह उपग्रह गतिशील हैं तो फिर पृथ्वी भी हमारे लिए पूजनीया होनी चाहिए थी. अब हम अपने पुरखों को इस अवैज्ञानिकता के लिए दोषी तो नहीं ठहरा सकते, उसमें सुधार और बदलाव के बीज तो बो ही सकते हैं. सूरज को गतिशील देख उसको सही ठहराना उनका भावी तदर्थ था. हमने वैज्ञानिक शोधों में उसे अनुचित करार दिया फिर भी वे वैदिक संकलन हमारे लिए महत्वपूर्ण और गौरवशाली हैं, क्योंकि तब हमारे पास शोध के उपकरण और चेतना की वृत्ति सीमित थी.
ऋग्वेद में जिनको देवतुल्य माना गया या उनकी स्तुतियां गाई गई. वे सभी ऊर्जा के प्रमुख संसाधन हैं. जहां तक इंद्र की बात है तो इंद्र के अर्थ को हमने देवलोक के राजा के रूप में लिया. हमारे ऋषियों को लगा कि अग्नि, वायु(हवा), वरूण(जल) इत्यादि देवताओं को निर्देश और सुझाव देने और जो कार्य इन सभी से नहीं होता होगा उसे जो करता होगा वो इंद्र होगा. दरअसल, इंद्र का व्यापक अर्थ राजा से है. ऋग्वेद के मुताबिक इंद्र ने नदियों का निर्माण किया. इंद्र ने ऊंचे पहाड़ों को काटकर पवन को बेरोक टोक चलने का मार्ग प्रशस्त किया. इंद्र प्रजापालक हैं और जो कोई भी जनहितैषी काम करता है वो इंद्र है. मतलब गांधी और नेहरू भी इंद्र हुए. नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर भी इंद्र हुए. देवलोक और इंद्र हमारे सृजनकर्ताओं की कल्पनाएं भी तो हो सकती हैं और साहित्य में कल्पनातिरेक पर कोई मनाही नहीं है. लाखों साल पहले जिन भावी कल्पनाओं को हमारे मुनियों ने तरजीह दी. वही आज वैज्ञानिकता के दौर के ऊर्जा के मूलभूत संसाधन हैं. साहित्य को उस समय, काल और परिस्थिति के हिसाब से समझने की कोशिश करेंगे और उसे व्यापक अर्थों में समझेंगे तभी जाकर उसका सही मायने लक्षित होगा. नहीं तो फिर हम कूपमंडूक ही बने रहेंगे.
एवमस्तु!