इंसान बहुत सारी चीजों को चुपचाप इसलिए भी स्वीकार कर लेता है कि उसके पास कोई विकल्प नहीं होता, वो निहायत मजबूर होता है. जिस माँ बाप ने आपको इस काबिल बनाया हो कि आप अपना अच्छा बुरा समझने के लायक बनें; जब उन्हें आप की जरूरत महसूस हुई तो आपने उनसे दूरी बना ली और उस दूरी का नाम रख दिया नौकरी. हम मिडिल क्लास और छोटे शहरों के लोगों के साथ ये समस्या बहुत मामूली है. दिन रात अपनी कोशिकाओं का पूरा जोर लगाकर भी आप इस लायक ना हो सकें कि अपने माँ बाप की बढ़ती उम्र में देखभाल कर सकें तो लानत है ऐसी क्षमता और पेशे पर. करीब पांच साल से मीडिया इंडस्ट्री में काबिज हूँ; लेकिन अभी तक इतनी हैसियत नहीं हो पाई कि माँ पापा को अपने बूते साथ रख सकूं. ऐसे मौके भी आते हैं जब आर्थिक तौर पर उन्हीं पर निर्भर रहना पड़ता है.
मैं अपने पापा को अब फैसले लेते हुए नहीं देखता तो मन मसोस उठता है. जिनकी एक बोल से घर पर सबकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी आज वो उम्र के इस पड़ाव में सबकी बातों को चुपचाप स्वीकार लेते हैं. एक पुत्र के तौर पर मैं पापा के व्यवहार के हमेशा करीब रहा हूँ. पापा ने बहुत प्रेरक और ईमानदार जीवन बिताया. घर बार को लेकर अपना सब लुटाते गये. जो अपने दिमाग का बेजां इस्तेमाल किये वे आज उन्हें अपने पैसे का धौंस आसानी से दिखा सकते हैं. लेकिन उनकी कर्तव्यनिष्ठा और समर्पण के सामने बहुत अदने मालूम पड़ते हैं.
आज परिस्थितियों के विपरीत होने पर सभी अपनों का चेहरा साफ-साफ दिख रहा है. सब के सब बस अपने फायदे और मौके को भुनाने के लिए पापा के पास आते थे. अगर सही में ईश्वर का अधिवास इस धरती पर है तो बस उससे इतना मांगने की जुर्रत करूँगा कि मेरे पापा और माँ को स्वस्थ और कुशल रखे; बदले में मुझे जो कुछ तकलीफें दे सकें; सहर्ष स्वीकार कर लूंगा.