आशाओं के तिनकों से जो आशियाने बनाये गये वो कभी धराशायी होकर भी ताश के पत्तों की तरह नहीं बिखरे, वो बहुत देर तक वहीं पड़े रहे. जैसेकि एक अच्छी परवरिश कभी आपको गलत रास्तों पर जाने नहीं देतीं. जब हम अपने परवरिश के मीनार पर आशाओं को आकृति देना शुरू करते हैं ना तो कुछ अद्भुत कलाकृति बनकर निकलती है. इंसान पत्थर से मिलकर तो बना नहीं है कि उसे तकलीफ़ का असर नहीं होता और उसकी वेदना पर घात की गई चोटें नहीं उकरतीं.
रोना तो मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है; लेकिन इसे छोड़ देने की जरूरत है. आजकल लोग रुदन को व्यक्तित्व की कमजोरी समझ लेते हैं. कौन सा महापुरुष आंसू के शबनम से मुखभाग को नहीं सींचा है. तो फिर रोना कमज़ोर होने का प्रमाणीकरण कभी नहीं हो सकता. फिर भी रोने की जरूरत नहीं. क्योंकि जिसे हम अपना भाई; पिता या रिश्तैदार समझ के नाउम्मीद होने पर रो बैठते हैं. वो सिर्फ एक आदमी है. जिसे अपनी अहमियत के अलावा कुछ नहीं भाता. उस पर माया और मोह की बंदिशों का अतिक्रमण है. इसलिए उन सबके लिए अपने मोती जैसे अश्रु बहाना कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता.
लोग अपने अप्रतिम से बिछड़ते वक्त भी दुखी होते हैं; और कुछेक तो इस कदर की चिल्ला चिल्लाकर रो पड़ते हैं. उन्हें भी किसी यात्रा पर निकलने वाले अपने प्रिय को इस तरह विदा नहीं करना चाहिए. अशांत मन की यात्राएं जिज्ञासाविहीन होती हैं और जिस यात्रा में जिज्ञासा मर जाए, उसका मकसद कभी पूरा नहीं होता. यात्राएं हमारे मन उद्दीपन का दीया होती हैं. उसके जलने से हमारे भीतर आशावाद का संचार होता है. इसलिए विदाई के समय निरर्थक रोना भी उचित नहीं.