रोशनदान! (22 अप्रैल की डायरी से)

इंसान की जीने के लिए जो बेचैनी है, वो बेइंतहा है! मरने के बिलकुल नजदीक पहुँचकर भी वो जीना नहीं छोड़ता. सब समझ बैठे हैं कि जीये जाना ही सबसे बड़ी हकीकत है लेकिन ये समझ सही नहीं है. सबसे बड़ा सच है मृत्यु. हम इस हकीकत से कभी इनकार नहीं कर सकते. श्रीमद्भागवत गीता में कृष्ण बार-बार अर्जुन को यही समझा रहे हैं कि तुम सिर्फ एक जरिया बनोगे. सबको जन्म और मृत्यु देने का अधिकार तो मुझे है. चूंकि गीता एक धार्मिक ग्रंथ ही नहीं बल्कि भारत के कानूनी प्रक्रिया में इस्तेमाल होने वाली किताब है; इस नाते भी इसकी प्रामाणिकता से किसी को गुरेज़ नहीं होना चाहिए.

कोरोना या किसी भी रोग से मरने वाले लोग अपनी स्वाभाविक मृत्यु को नहीं प्राप्त करते हैं. वो उस संक्रमण से तड़प तड़प कर मर जाते हैं. जिस देश में हर साल 6 लाख लोग मलेरिया से मर जाते हैं वहां कोरोना से उचित लड़ाई का दंभ फिजूल है. हालात ये है कि संक्रमण तेजी से फैलता जा रहा है और सिस्टम लापरवाहियों का पुलिंदा बनता जा रहा है.

चीन में 2011 में सार्स फैला; सार्स के कुछ मामले इटली में भी आए. आप चीन को कोरोना के लिए कोसते रहिए लेकिन इसी चीन ने उस समय सार्स से लड़ने के लिए राजधानी समेत कई प्रमुख शहरों में हजारों बेड के अस्पताल चंद दिनों में बनाकर खड़े कर दिए. जिससे अन्य रोगियों की जान पर ना बन आये. हमें इतना सुनहरा मौका मिला लेकिन भारत सरकार ने उसे गवां दिया. वो अपने सिर का ठीकरा कुछ गैर बीजेपी शासित राज्यों पर फोड़ती रही. लेकिन किसी वैश्विक महामारी में केंद्र सरकार की भूमिका प्रमुख होती है. उसकी जिम्मेदारी होती है कि वो स्वास्थ्य सुविधाओं और आगामी चुनौतियों का डटकर सामना करे.

हम सोशल कैंपेन के भरोसे कितनी जानें बचा पाएंगे और कब तक? इसके लिए कोई मेगा प्लान सरकार को लाना ही पड़ेगा और अगर इतने त्राहिमाम को देखने के बाद भी भक्ति कायम है तो भगवान बचाये!!!

Published by Abhijit Pathak

I am Abhijit Pathak, My hometown is Azamgarh(U.P.). In 2010 ,I join a N.G.O (ASTITVA).

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