आज ही के दिन 1869 ई. में मिर्ज़ा ग़ालिब ने अन्तिम सांस ली थी । दिल्ली की पहचान भले ही आज ग़ालिब से होती हो , लेकिन ग़ालिब की सुखन से पता चलता हैं कि उन्होनें कितने संकट के थपेड़े झेले थे । आज विरासत खाक में इसलिए भी नहीं मिट पाती हैं क्योंकि हिन्दुस्तानी परम्परा से टकराने के लिए फ़न , ग़जल और शायरी को ग़ालिब से टकराना पड़ता ही हैं ।
Abhijit Pathak