किसान त्रस्त है, ये लिखने भर से क्या होगा? किसान बदहाल है, ये सब जानते है. नसीहत और हवाले देने वाली सरकार किसानों का साथ देने से कतराती है. दो जून की रोटी जुटाने में दिन-रात एक कर देने वाला किसान बदहाल स्थिति से गुजर रहा है.
मैनें बीते बुधवार को एक मध्यमवर्गीय किसान से मुलाकात किया. जिसको खेती अब नहीं सुहाती है. उसका सारा आसरा अब उसके एक निजी दुकान से ही है. रबी फसल की बुआई जोरों पर है लेकिन ये बुआई में ढील बरत रहा है. इसकी वजह है कि खेती से कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है.
लागत मूल्य(जुताई, खाद, पानी और बीज) इतना महंगा है कि लाभ उस हद तक मिल पाना मुश्किल सा लगता है.
ये देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि अन्नदाता इस स्थिति में अपने अप्रतिम खेत से दूर होता दिख रहा है. सरकारे भी कमाई करने पर उतर आई है. किसानों द्वारा बेचे गए अनाज और सरकारी बीज के बीच में दस गुना का अंतर बेहद सोचनीय है.
इस तफ्तीश और जायजे से एक बात सामने आती है कि अब किसानों के लिए ये लोकतंत्र अंग्रेजियत सा बनता चला रहा है. किसानों की आत्महत्याए दिन ब दिन बढ़ती ही चली जा रही है.
किसानों को लेकर साहित्य ने भी सत्तापक्ष की नाकामियों का जिक्र किया था. इनमें शीर्षस्थ दो लाइने ये भी है कि;
खेती न किसान को,
भिखारी को न भीख भरी.
बनिज को बनिक न,
चाकर को चाकरी,
जीविकाविहीन लोग,
सिद्यमान सोचे बस.
कहें एक एकन्ह से,
कहां जाई का करी.
#ओजस