#MahaswetaDevi
28 जुलाई को साहित्यकार और जनमुद्दों पर लेखनी चलाने वाली महाश्वेता देवी मर गई तो यहां के अवसरवादी लोगो और जनगद्दार नेताओं ने उनका कारवाँ भूला दिया. उनकी बातें बुनियादी थी इसलिए राजनीति ने उन मुद्दों से अपना मुँह मोड़ लिया, जिसके लिए महाश्वेता देवी ताउम्र हाथ पैर मारती रही. साहित्यिक पत्रिका हंस में ह्रषीकेश सुलभ ने उनका संस्मरण लिखा था. मैने जिस दिन उसे पढ़ा. उस दिन से ही मेरा चित्त महाश्वेता देवी को और ढूंढने की कोशिश करने लगा. आजमगढ़ गया; लेकिन कोई किताब नहीं मिल पाई.
ये मेरे लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि मै आज तक उनकी कोई किताब नहीं पढ़ सका. लेकिन संवेदना को उभारने में इन पर लिखा संस्मरण ही इनके अवलोकन के लिए काफी था. लोगो की समस्याओं को लेकर जो दिनरात जूझता है. उसे लोग जानते है लेकिन नहीं जान पाते है. उसके काम को देख नहीं पाते. उसके जनवाद को तराश नहीं पाते. उसकी बातों को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा पाते है.
ये संस्मरण आजादी के बाद लोगो की विवशता, बदहाली और मजबूरी पर सवालिया निशान खड़ा कर रहा था.
फिर एक दिन अचानक अमर उजाला में महाश्वेता देवी का जिक्र आते ही मैने फिर से हंस वाला संस्मरण पढ़ा. महाश्वेता देवी का जिक्र 23 जनवरी 2016 के संपादकीय पेज पर उमेश चतुर्वेदी ने अपने लेख गोवा में उठा बुनियादी सवाल में किया था. उन्होनें इस लेख में सरकारों द्वारा महाश्वेता देवी का सुझाव नजरअंदाज करने पर दुख जताया था. वे लिखते है- ‘सिंगूर आंदोलन के दौरान मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी ने एक बड़ी बात कही थी कि उद्योगो के लिए बंजर और दलदली भूमि का अधिग्रहण क्यों नहीं हो सकता. कृषि योग्य भूमि का ही अधिग्रहण क्यों?
इस सवाल का जवाब किसानों के पक्ष का था लेकिन सरकारों ने इस पर सोचना भी उचित नहीं समझा. शायद इसका सरोकार पूंजीपतियों के संवर्धन का नहीं था इसलिए इसे तवज्जो देने पर कोई विशेष फायदा राजनेताओं को नहीं दिखा. किसान जो आज भी खेतों को अपना माई- बाप मानते है. ईमानदार किसान धंधे को बेमानी समझता है. वो पसीना बहाना और कड़ी धूप में तपना अपना दायित्व समझता है. उनकी उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण होते ही वे अपंग हो जाते है.