वाह री! संवैधानिक असमंजस

संविधान जिनको समझ में आता हो आए. लेकिन मैने जितना पढ़ा और समझा है उस हिसाब से हम भारत के लोगों का जो संविधान है उसे असमंजस की पोटली कहा जा सकता है.

तथ्यहीन बातें नहीं कर रहा जनाब. देखिए ना इस संविधान में एक तरफ तो समानता का अधिकार दिया गया है. जिसमें लिखा गया है कि जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और लिंग के हिसाब से भेदभाव नहीं किया जाएगा.

अगर ये संविधान के अधिकार हमें मिल रहे हैं तो फिर जाति के आधार पर दिया जाने वाला आरक्षण उन्हीं अधिकारों को रौंदता हुआ निकल जाता है. और धारा-370 कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्रदान कर क्षेत्र आधारित भेदभाव को जन्म देती है.

संविधान में जिन दायित्वों की बात की गई है. जिन प्रतीकों के सम्मान की बात की गई है, उसमें संवैधानिक ग्रंथ गीता सेकुलरवाद के तिलिस्म को तोड़ता नजर आता है. कटघरे में खड़े गीता की सौगंध हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई सबके लिए है.

आगे चलते हैं. एक तरफ तो हमारा संविधान तमाम देशों से ग्राह्म और भारत सरकार अधिनियम 1935 का 2/3 हिस्सा है तो वहीं भारतीय विद्वतजनों की सारगर्भिता का काॅपी पेस्टिकरण बौद्धिक असंतोष से भर देता है.

जय हिंद
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(बदलाव की उम्मीद के साथ)

Published by Abhijit Pathak

I am Abhijit Pathak, My hometown is Azamgarh(U.P.). In 2010 ,I join a N.G.O (ASTITVA).

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