भाषा, साहित्य और संवाद के लोगों से तो शब्द-मर्यादा की उम्मीद रहती ही है. फिर कोई संवाद का आदमी प्रतिवाद और हस्तक्षेप पाकर अपना आपा खो बैठे तो फिर क्या कहा जाए. राजनेताओं और अभिनेताओं ने तो भाषा को रसातल में फेंक ही दिया है पर लेखकीय समुदाय तो इसकी गरिमा को बचाए रखे. लोक व्यवहार में अगर कहीं भाषायी सौंदर्य में अक्खड़पन हो तो उसे भी लिखा जाना चाहिए जैसेकि काशीनाथ सिंह ने कासी के असी में किया है. पर व्यक्तिगत तौर पर तो कम से कम अपनी गरिमापूर्ण व्यक्तित्व और पेशे का खयाल तो रखना ही चाहिए. जो लोग शब्द पर काम करते हैं, वे देवी सरस्वती के उपासक माने जाते हैं. उनके मुखारबिंद से किसी के लिए अपमानजनक बातें शोभा नहीं देतीं. हस्तक्षेप और वाद-प्रतिवाद तो पत्रकारिता के साजो-श्रृंगार होते हैं. राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता लाइव डिबेट में अपना असली चेहरा यदा-कदा प्रकट करते ही रहते हैं. हाथापाई की भी नौबत आ ही जाती है. ये भाषायी संकुचित का सबसे बड़ा उदाहरण है. प्रवक्ता और नेता की शोभा उच्चकोटि की भाषा से होती हैं. अनर्गल और स्तरविहीन बातें उनके पद को म्लान करती हैं. हालांकि टीवी डिबेट में ये तौर तरीके प्रवक्ताओं के लिए फायदेमंद साबित हो सकते हैं क्योंकि ज्यादातर लोग टीवी पर ड्रामा ढूंढ़ते हैं. उन्हें इन कारनामों पर हास्य की अनुभूति मिलती है जिसे वो खोना नहीं चाहते. यही कारण है कि संवाद का प्रहरी यानी एंकर जानबूझकर ऐसी नौबत आने देता है.