गांव में क्या बचा है जो शहर में नहीं दिखता? जवाब है धैर्य! जी हां, गांव जंवार में धैर्य इतना है कि किसानों ने हजार यातनाएं सहते हुए भी कभी खेती-बाड़ी नहीं छोड़ा और पूंजीपतियों का धैर्य आए दिन डगमगाता दिखाई दे रहा है.
धैर्य देखना हो तो चले जाना, उस मां के पास जिसने अपने आंख के तारे को तुम्हारी गुलामी में झोंक दिया, इस उम्मीद के साथ कि शहर बड़ा आदमी बना देता है. बदले में खून चूस लेता है ये नहीं बताया. आनंद विहार टर्मिनल बस अड्डे पर हजारों की भीड़ से ये साबित हो गया कि पूंजीपतियों तुम्हारा धैर्य डगमगाने लगा है.
गांव से आए जिन मजदूरों ने तुम्हारे आलीशान दफ्तर बनाएं, जिन्होंने तुम्हारे कार चलाई! तुम्हारे दफ्तर के सामने वाचडाॅग बने रहें. उन्हें तुमने रोकना भी मुनासिब नहीं समझा.
धैर्य देखना हो तो गांव जाना, और उस पिता की आंखों में ध्यान से देखना. जिसने अपने जीवन की गाढ़ी कमाई अपने बेटे को बाबू बनाने में लगा दिया और जब वो अधिकारी बन गया तो उसी मां-बाप को चार दिन की आई जोरू के सामने द्वितीयक बना दिया.
धैर्य देखना होगा तो गांव जाना, और पूछना उस पत्नी से जिसके पति ने घर की माली हालत बिगड़ते देख गांव छोड़ दिया और शहर बस गया. आजाद भारत में उसके नजदीकी शहर को अर्थव्यवस्था से सीधे तौर पर नहीं जोड़ा गया. उसका जवाब यही होगा कि उसका पति ही उसके लिए कुबेर है. स्वाभिमान और धैर्य का ये सम्मिश्रण तुम्हें शर्मिंदा ना करे तो बताना.
धैर्य देखना होगा तो उस लड़के से जाकर मिलना, जो क्लास का टाॅपर रहने के बावजूद आगे की पढ़ाई नहीं कर सका सिर्फ इसलिए क्योंकि उसके घर की आर्थिक हालत बदतर थी. सरकारी कागजों में दिखने वाले सभी दावे झल जैसे लगने लगेंगे.
कितने हजार साल पुराना धैर्य है किसानों का ये जानने के बाद तुम्हारे पैरों तले जमीन खिसक जाएगी. जिन किसानों ने अपने लगान से राजवंश चलाए. जिन किसानों ने अंग्रेजियत के जुल्मों को सहते हुए नील की खेती की. जिन किसानों के खून पसीने के लाभ से मध्यकालीन राजाओं ने ताजमहल बनवाएं, मकबरे बनवाएं और इमारतें बनीं. उनके धैर्य को देखना तुम.
विडंबना ये है कि आजाद भारत में उनकी गुलामी नहीं गई. वो अब भी सरकार के गुलाम हैं. लागत से भी कम उपज होता है फिर भी धैर्य कायम है. धैर्य देखना होगा तो उस मां के आंखों में रुककर देखना ज्वालामुखियों सा उदगार, जिसका बेटा शहर से अभी-अभी खाली हाथ लौटा है.