मन का डर, आत्मविश्वास के व्युत्क्रमानुपाती होता है!

सबके मन में डर की परिधियां होती हैं. जब कोई इसे लांघने की कोशिश करता है. तो फिर से नई परिधियां बनकर तैयार हो जाती हैं. हालाँकि मन की बहुत जल्दी बेसब्र होने की रवायत है और इसीलिए इसे मन-कस्तूरी की संज्ञा दी जाती रही है. दरअसल हिरन के मस्तक पर कस्तूरी होती है लेकिन अज्ञानतावश वो उसे पाने के लिए जंगल-जंगल दौड़ लगाता है. इसी तरह मन की ये परिधियां हम स्वयं निर्मित करते हैं और इसे लांघने की युक्ति हमारे पास ही होती है. जैसे-जैसे मन में डर की परिधियों को हम पार करते हैं. हमारा व्यक्तित्व विकास और आत्मविश्वास बढ़ता चला जाता है.

एक तरह से मन का डर, आत्मविश्वास के व्युत्क्रमानुपाती होता है. मन का डर घटने के साथ ही आत्मविश्वास अपने शिखर की सीढ़ी चढ़ने लगता है. बचपन में हम उन सबसे दूर भागते, जिनसे परिचित नहीं होते थे. अजनबी लोगों से जान पहचान बढ़ते ही हमारा डर खत्म हो जाता था. जब तक कोई तैराकी नहीं सीख लेता, उसे गहरे पानी से डर बना ही रहता है.

अंग्रेजी वाले लोग डर को फ़ोबिया कहते हैं. उनका अध्ययन इस कदर संकुचित है कि वे डर का अभ्यास जानते ही नहीं और इसे सीधे मनोरोग बता देते हैं. अब सांप विषैला है, ये मन को पता है. तो उससे डर होना लाज़मी सी बात है. अगर सांप के कांटने पर कोई ना मरे तो सांप से भी लोग डरना बंद कर देंगे. जानते हैं आप? हमारे मस्तिष्क की बाह्य परतों पर एक इंडिकेटर है. जो मन को खतरे की लगातार सूचना दे रहा होता है. अगर ये इंडिकेटर बार-बार सूचित कर रहा हो कि कोई व्यक्ति आपके लिए खतरा पैदा कर सकता है तो एक नैनो सेकेंड नहीं लगेंगे डर की परिधियां स्थापित होने में.

इन परिधियों को लांघने में हमारा भरपूर सहयोग हमारे अपने लोग करते हैं. कई बार तो वो हमें और डराकर बता देते हैं कि दरअसल जो डर तुम्हारे भीतर घर कर गया है उससे डरने की कोई जरूरत ही नहीं. कई दफा लोग ऐसा तुम्हारी डर को लेकर उपहास भी उड़ाएंगे. ये वही लोग हो सकते हैं, जिन्होंने उस पार्टिक्यूलर डर पर फतह हासिल किये हो. निराश मत होइए, जब तक आप अपने डर को जीत नहीं लेते. लोग जरूर हंसेंगे लेकिन अब इसका जवाब आप उन्हें अफसोस जताकर नहीं आत्मविश्वास बढ़ा कर ही देंगे.

Published by Abhijit Pathak

I am Abhijit Pathak, My hometown is Azamgarh(U.P.). In 2010 ,I join a N.G.O (ASTITVA).

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