छोटे दादाजी यानी बाबा को हम प्यार से मुंबई वाले बाबा बुलाते. मुंबई में नौकरी करने की वजह से ही उन्हें ये नाम दे दिया गया. एक चर्चा में मुझे जब मालूम चला कि उन्हें आखिरी सैलरी सिर्फ़ साढे बारह हजार रुपये ही मिली और कुल जमा छ: लाख पीएफ डिपाॅजिट. तो हैरान रह गया. मेरे हिसाब से वो 2001 या दो में रिटायर्ड हो गये थे और उन्होंने चालीस साल सेंचुरी कंपनी के मुंबई स्थित दफ्तर में काम किया था. यानी 1961 में जब उन्होंने नौकरी शुरू की होगी तो सैलरी बड़ी मामूली ही रही होगी. उन्होंने बंटवारे के बाद हम लोगों को भले छोड़ दिया या अपने परिवार से मोह कर बैठे लेकिन उनकी कर्तव्यनिष्ठा पर सवाल उठाने का हमें कोई हक नहीं है.
मुंबई में उन्होंने फ्लैट भी लिया, वो जिस भी कीमत का हो. वो उनके मेहनत और धैर्य के आगे कुछ भी नहीं. हमें उनका आदर करते रहना चाहिए. उन्होंने अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया. कम से कम चालीस साल तक तो वो साथ निभाते ही रहे और मैं जब भी घर पर रहा हूँ. लाख रंजिशें रही हों, पर कभी उनका कहना ना सुना हो! ऐसा नहीं हुआ. कोई लाख आरोप लगाये या बातें बनाये लेकिन हमने उन्हें कभी नहीं छोड़ा. एक बार गांव में ही किसी के घर से मुंबई वाले बाबा का विवाद बढ़ गया. झगड़े की नौबत आ गई. पिताजी घर पर थे, वो गए और मुंबई वाले बाबा को कहा- चाचा तू चला घरे, हम देखत हयी सबके. पापा ने पूरे मामले को संभाला और सबको शांत करवाया.
छोटी दादी इस बात के ताने भी मारतीं, कि अगर तुम्हारे पापा को मुंबई वाले बाबा कुएं से नहीं निकालते! तो तुम लोग आज मुझसे झगड़ा नहीं करते. उनके इस ताने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. पापा के बचपन का किस्सा है. साठ के दशक की बात होगी शायद. तब कुएं के पानी से ही सारा काम चलता. रहट से सिंचाई की जाती और ढेबरी लगाकर पीने का पानी रस्सियों से निकाला जाता. बड़की माई बतातीं कि पापा ने जिद्द पकड़ ली थी कि वो कुएं के बीच का जो सबसे साफ पानी है, वही निकालने पर पीएंगे. दादी को रसोईघर के और भी करने थे. इस नाते वो गुस्से में ये कहते हुए चली आई कि जाओ पीओ बीच कुएं का पानी. फिर क्या था? पिताजी भला बड़की माई का कहा, नहीं मानते.
सो उन्होंने बीच कुएं का पानी पीने की अपनी जिद्द पूरी करने के लिए छलांग लगा दी. इनकी उम्र दस बरस से कम ही रही होगी. तैरना तब शायद आता नहीं था. नतीजा ये निकला कि पापा कुएं में डूबने लगे. किसी ने इसकी जानकारी घर पर दी. लोग रस्सी डोरी का बंदोबस्त करते, उससे पहले मुंबई वाले बाबा उन्हें बचाने के लिए कुएँ में कूद पड़े. पापा को मुंबई वाले बाबा ने अपनी जान की परवाह किए बगैर बचाया और इसके लिए बड़की माई ये किस्सा सुनाते हुए उनके प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करते कभी ना थकती.
आगामी पीढ़ियों को इस बारे में जानकारी बनी रहे. इस नाते मैंने ये छोटा सा वाकया इंटरनेट पर शेयर किया है. उम्मीद है कि वो भाव जो पापा, मुंबई वाले बाबा के प्रति रखते और जो अनुराग मुंबई वाले बाबा बंटवारे से पहले पापा के प्रति रखा करते थे. उसमें लेशमात्र की भी कटौती किसी को नहीं करनी चाहिए!